ज़रूरत

लुट रही है अस्मिता किसी की
रात घुप्प अँधेरे में,
और मैं कविता के धागों से
उसके कपड़े के चिथारों को
बाँधने की कोशिश कर रहा हूँ

कितना असमर्थ ख़ुद को मैं पा रहा हूँ|

रोज़ चौराहे पर लाल बत्ती होते ही
दौड़ते बचपन को
कविता की दो पंक्तियों में
भूख से लड़ने की ताकत
देने की कोशिश कर रहा हूँ

कितना असमर्थ ख़ुद को मैं पा रहा हूँ|

पिछड़े गाँव के किसी खेत में,
रोज़ मेहनत करते मजदूर के हाथों को
कुछ देर के लिए आराम करने को कह रहा हूँ
उसे कुछ देर सोने को कह रहा हूँ

कितना असमर्थ ख़ुद को मैं पा रहा हूँ|

सुनसान गली के आखिर में,
किसी मकान के कोने वाले कमरे में,
उस छोटे से खटिये पर-
सालों से चुप, 
उस बच्ची के आसुओं की
आवाज़ बनने की कोशिश कर रहा हूँ

कितना असमर्थ ख़ुद को मैं पा रहा हूँ|

बाज़ार के बढ़ते भाव से
चश्मे के पीछे की
चालीस साल पुरानी आँखों को,
काँपते हाथों को,
अपने बच्चों के पूरे ना हो सके ज़रूरतों के बोझ को-
उस पंखे से लटकते, छटपटाते टांगों को
अपनी कविताओं से जकड़ने की कोशिश कर रहा हूँ

कितना असमर्थ ख़ुद को मैं पा रहा हूँ-
मुझे तुम्हारी भी ज़रूरत है!

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