समीप आना चाहता हूँ

वो दूर मुझसे जा रही, मैं समीप आना चाहता हूँ

जग विशाल समृद्ध सा है, 
तुम विभा इस जग की 
मैं शुन्य जगत के आकारों में, 
तुच्छ- घिरा हुआ विकारों में 

तुम आकार, मैं निराकार 
बस तुम्हे पाना चाहता हूँ 
मैं समीप आना चाहता हूँ!

मैं नहीं कोई और, तुम्हारी छाया हूँ 
स्वयं कुछ भी नहीं, तुमसे ही बन पाया हूँ 
तुम वर्षा, मैं प्यासा!
बस तुम्हे अपनाना चाहता हूँ
मैं समीप आना चाहता हूँ!

सामिप्य तुम्हारा चाहिए, सानिध्य तुम्हारा चाहिए 
पराया मत समझो, अपनापन तुम्हारा चाहिए, हक तुम्हारा चाहिए!

तुम आत्मा, मैं शरीर!
बस तुम्हारा स्पर्श चाहता हूँ 
एक होना चाहता हूँ 
समीप आना चाहता हूँ!

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