बरसात के इस तरफ से

मैं बरसात के
इस तरफ बैठा
उस तरफ के
बरसात को देखता हूँ

देखता हूँ
पानी, पत्ते, बादल,
तालाब, झील,
नदी, समुद्र
अपनी खिड़की से

खिड़की से
देखता हूँ कितना कुछ-
बरसात से धुल कर
दिखती हैं तस्वीरें साफ

मैं अपलक
देखता हूँ सबकुछ
निरंतर, लगातार

खिड़की से
यादें आती हैं
जाते हैं
संदेश कई
-शून्य में

शून्य में
शांति है
जो देवदार के
पेड़ों में भी है

कुछ देर के लिए
देवदार का पेड़ बनना
कितना सुखद है-
बिल्कुल खिड़की
से उस तरफ के
रुक चुके बरसात को
देखने जैसा।

-24.7.17

मैं यहीं हूँ, कब से

मैं
यहीं हूँ
कब से...

एकदम यहीं
बैठा हुआ सा,
तुम्हारे साथ ही
तुम्हारे जाने के बाद भी

ठीक मेरे बगल
कुछ गर्माहट बैठी है
देखो ना,
हम कब के साथी
अब भी यहीं हैं

तुम्हारा जाना
कितना अकस्मात था
उतना ही जितना
तुम्हारा मेरे जीवन में आना

मैं चालाक था
सारे खास पल
दर्ज किये कविता में

इसलिए कि
तुम्हारे जाने के बाद भी
तुमको पढ़ सकूँ
बार बार

लेकिन देखो ना
अब भी बैठा कविता ही
लिख रहा हूँ

तुम भी पास बैठी हो ना,
इसलिए।

-8.7.17